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लेख

अनाहत उम्मीद की कविताएँ

राकेशरेणु


आज हम जिसे समकालीन कविता कहते हैं वह आठवें दशक से आरंभ होकर अब तक की हिंदी कविता है । आधी सदी की इस अवधि के दौरान लिखी गई कविता में अनेक उतार-चढ़ाव आए, कई नई प्रवृत्तियों ने जगह बनाई । यहाँ तक कि बीसवीं सदी के आख़िरी वर्षों में लिखी जा रही कविता का चेहरा आज लिखी जा रही कविता से काफ़ी अलग है । 21वीं सदी की कविता के नैरेटिव को बीसवीं सदी की कविता के नैरेटिव से नहीं समझा जा सकता । इक्कीसवीं सदी में लिखी जा रही युवा कविता का एक बड़ा हिस्सा एक बार फिर अभिजनवादी कविता-प्रवृत्तियों की ओर उन्मुख दिखाई देती है जो बहुत हद तक नयी कविता और अकविता के क़रीब है । अभिजनवादी कविता के पुराने धुरंधर इसकी अगुवाई कर रहे हैं । इस पर विस्तार से चर्चा का अवसर यहाँ नहीं हैलेकिन यह रेखांकित करने की ज़रूरत है कि यदि पिछली आधी सदी की कविता को अब तक कोई पारिभाषिक नाम नहीं दिया जा सका और समकालीन के संबोधन से काम चलाया जाता रहा, तो यह अपने आप में कविता आलोचना की हालिया स्थिति पर एक तीखा बयान है ।

आठवाँ दशक हिन्दी कविता यात्रा में एक महत्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु है । देश के भीतर यहनक्सलवाद के उभार, दमन और क्रमिक ठहराव, राजनीतिक निरंकुशता की शुरूआत, जयप्रकाश नारायण नीत आंदोलन संपूर्ण क्रांति, आपातकाल और इसके बाद हुए आम चुनाव में इंदिरा गांधी की पराजय, अपने अंतर्विरोधों के कारण पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार के पतन जैसी महत्वपूर्ण परिघटनाओं का दशक है । राजनीति की तरह साहित्य में भी यह गहरे उथल-पुथल, परिवर्तन और नवीन प्रवृत्तियों के उदय का दशक भी है । कविता में यह यथार्थवादी, जीवनधर्मी, जनता से जुड़ी रचनाधर्मिता का दशक है । इसी दशक के दौरान थोड़ा आगे-पीछे कई महत्वपूर्ण कवियों का उदय होता है। कुमार विकल, वेणुगोपाल, आलोक धन्वा, ज्ञानेन्द्र पति, गोरख पांडे, राजेशजोशी, वीरेनडंगवाल, मंगलेशडबराल, अरुण कमल, मनमोहन, उदय प्रकाश, विष्णु नागर, विजय कुमार, इब्बाररब्बी और असदज़ैदी ने कुछ वर्ष आगे-पीछे इसी दशक के दौरान अपनी पहचान बनाई ।

यह सूची किन्तु अधूरी है । कमोबेश एक दर्जन से ऊपर अन्य कवियों ने भी इसी काल में अपनी कविताओं से अलग छाप छोड़ी लेकिन अन्यान्य कारणों से ऊपर के कवियों के कारवाँ से उड़े गर्दोगुबार ने इन कवियों और उनकी कविताओं की पहचान को कोहरे में रखा । विनोद कुमार शुक्ल की कविता के हवाले से कहें तो उन्हें एक धब्बे में बदल दिया । धब्बे के भीतर एक सशक्त कवि था । कई धब्बों के भीतर कई मज़बूत कवि । अपनी बेहतरीन कविताओं के बावजूद आज इन कवियों की चर्चा उस तरह नहीं की जाती जिस प्रकार कारवाँ के उपरोक्त कवियों की । कवि उपेंद्र कुमार कमोबेश इसी दूसरी जमात के छूटे हुए कवियों में शुमार रहे ।

प्रश्न उठता है कि कारवाँ से पिछड़ जाने की वजहें क्या थीं ? क्योंकि वे किसी दौड़ में शामिल नहीं थे । क्योंकि वे कारवाँ में बहुत बाद में शामिल हुए (उपेंद्र कुमार का पहला कविता संग्रह 'बूढ़ी जड़ों का नवजात जंगल' सन् 1979 में प्रकाशित हुआ था) । क्योंकि स्वभाव से वे संकोची रहे । क्योंकि वे कविता की ताक़त में भरोसा करते रहे । क्योंकि आत्म प्रचार या ख़ुद को मनवाने का कौशल उनमें नहीं रहा । यों तो वर्ष या दशक के आधार पर कवि अथवा कविता का मूल्यांकन कोई उचित आधार नहीं है लेकिन समुचित आलोचना पद्धति के अभाव में यह चलन-सा बन गया है । इसलिए उनके पहले संग्रह के प्रकाशन वर्ष (1979) को आधार बनाकर यह भी कहा जा सकता है कि वास्तव में वे आठवें दशक के नहीं बल्कि आठवें और नौवें दशक के दोआब के कवि हैं लेकिन ऐसा लिख देने मात्र से बात बदल नहीं जाती । बात तो कविता से बनती, बिगड़ती और बदलती है ।

'आजकल' में प्रकाशित अपने एक आलेख में मैनेजर पाण्डेय उपेंद्र कुमार को समकालीन उल्लेखनीय कवियों की सूची में शामिल करते हैं । उन्हें किसी सूची में शामिल किया जाए अथवा नहीं, यह तथ्य निर्विवाद है कि उपेन्द्र कुमार हमारे समय के एक महत्त्वपूर्ण और प्रयोगधर्मी कवि हैं । उनकी काव्यात्मक सहजता और संवेदनात्मक विशिष्टता बरबस ध्यान खींचती है । वे आठवें दशक के उत्तरार्ध से लेकर अब तक, यानी कमोबेश साढ़े चार दशकों से निरंतर लिख रहे हैं । उनकी कविताओं का वितान बहुत बड़ा है । पिछले वर्ष 2022 में प्रकाशित नौवें कविता संग्रह 'हवा की नदी में' के अलावा उपेन्द्र जी के दो गज़ल संग्रह, दो प्रबंध काव्य और लंबी कविताओं की दो पुस्तकें प्रकाशित हैं । इस दृष्टि से देखे तो 'मैं बोल पड़ना चाहता हूँ' (1994) के डेढ़ दशक बाद 'गहन है यह अँधकारा' (2010) का प्रकाशन हुआ जो उनकी छह लंबी कविताओं का ही संकलन है । इन दोनों संग्रहों के बीच की अवधि में उनके कम से कम पाँच अन्य कविता संग्रह प्रकाशित हुए । ज़ाहिर है कि उपेन्द्र जी एक प्रयोगधर्मी कवि हैं और विधागत सीमाएँ उन्हें बाँध नहीं पातीं । वे उन सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं और एक से दूसरी विधा में सहजता से आते-जाते हैं । इससे उनका कवि मज़बूती पाता है, कमज़ोर नहीं होता ।इन पंक्तियों के लेखक के लिए यह कुतूहल का विषय रहा है कि प्रमुखतया आधुनिक छंदमुक्त कविता का कवि ग़ज़लों और अब अतीत हो चुके प्रबंध काव्य लेखन की ओर क्यों उन्मुख हुआ । क्या कवि ने ऐसा शौक़िया तौर पर किया अथवा कविता की अन्तर्वस्तु ने उन्हें ऐसा करने के लिए विवश किया । इसलिए अपनी पहले व्यक्त की गई राय को पुष्ट करने के लिए तय किया कि उपेंद्र कुमार के कविता संग्रहों के साथ-साथ उनके दोनों प्रबंध काव्यों को पढ़ा-गुना जाए ।

प्रबंध काव्य में उसके आकार-प्रकार, लंबाई का महत्व है । उस लंबाई को साधने के लिए ज़रूरी काव्य भाषा का भी । जबकि कविता की प्रवृत्तियों का निर्धारण आमतौर पर तात्विक यानी आन्तरिक गुणों के आधार पर किया जाना चाहिए, शिल्प अथवा आकार-प्रकार के आधार पर नहीं । बावजूद इसके आधुनिक हिन्दी कविता में प्रबंध काव्य को एक प्रवृत्ति के रूप में स्वीकार किया गया है । लेकिन नई कविता के साथ प्रबंध काव्य की धारा धीरे-धीरे क्षीण होती गई है और उसकी जगह लंबी कविताओं ने ले ली । फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि कवियों ने प्रबंध काव्य का सृजन बिलकुल छोड़ दिया है । बीच-बीच में हिन्दी साहित्यिक समाज के सम्मुख अलग-अलग कवियों के प्रबंध काव्य आते रहते हैं । उनमें से कुछ निश्चित तौर पर महत्वपूर्ण और विचार तलब होते हैं । बात चुका हूँ कि उपेंद्र कुमार ने भी लंबी कविताएँ लिखी। किन्तु आगे चलकर उन्हें 'इन्द्रप्रस्थ' और 'वायु पुरुष' नाम से दो प्रबंध काव्य रचने की ज़रूरत महसूस हुई । ग़ौरतलब है कि ये दोनों प्रबंध काव्य उपेंद्र जी की आरंभिक कृतियाँ नहीं हैं । लगभग चार दशक लंबी रचना और विचार यात्रा का हासिल हैं । इस अवधि में उपेंद्र कुमार के कवि ने एक परिपक्वता हासिल कर ली थी । इसलिए उनका कोई भी निर्णय अकारण नहीं हो सकता । उसके पीछे सुनिश्चित उद्देश्य होंगे । कवि की दृष्टि और कथ्य से जुड़ी ज़रूरतें होंगी ।

रचनाकार कथ्य को वांछित स्वरूप देने के लिए सभी उपादेय उपकरण अपनाता है । अपनाना चाहिए । ऐसे समय में जब प्रबंध काव्य लिखना अतीत की बात हो गई हो, उपेंद्र कुमार रचित प्रबंध काव्य, 'इन्द्रधनुष' और 'वायु पुरुष' पिछले कुछ वर्षों के भीतर, यानी क्रमशः सन् 2017 और 2018 में प्रकाशित हुए हैं । दोनों ही पुस्तक की रचना भूमि के लिए उपेन्द्र जी मिथकों का संदर्भ लेते हैं । महाभारत का उपेन्द्र जी पर गहरा प्रभाव है । आम मध्यवर्गीय परिवारों की तरह बचपन से वे इसके अंश और उद्धरण सुनते आए हैं । इन्द्रधनुष की प्रस्तावना में उपेन्द्र कुमार लिखते हैं - 'महाभारत के प्रति मेरा रुझान कभी कम नहीं हुआ । प्रौढ़ावस्था तक आते-आते अनेक विद्वानों द्वारा लिखित महाभारत या इससे संबंधित काफ़ी पुस्तकें पढ़ीं । मेरी सोच में यह कथा सदा विद्यमान् रही । शायद यही कारण है कि मेरी अनेक कविताओं में महाभारत के विभिन्न चरित्र भिन्न-भिन्न संदर्भों में आते रहे हैं ।' स्पष्ट है कि इस पुस्तक की रचना भले बाद में हुई हो, उसकी ज़मीन कवि के मस्तिष्क में बचपन या किशोरावस्था से ही तैयार होने लगी थी । अन्यथा नहीं है कि कवि ने यह पुस्तक अपनी माँ को समर्पित किया है, और माँ के मार्फ़त समस्त स्त्री जगत को । उनकी संवेदना, पीड़ा और संघर्षों से तादात्म्य स्थापित किया है । इन्द्रधनुष में महाभारत के स्त्री पात्रों के ज़रिए आज के भारत की स्त्रियों की दशा व समाज व्यवस्था पर विचार किया गया है । पितृ सत्तात्मक समाज के कालातीत दोषों ने इस आख्यान को समकालीन संदर्भ व स्वरूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है ।

मिथकों से संदर्भ लेना और उनका आत्मसातीकरण अनेक समकालीन कवियों की विशेषता है । उपेंद्र कुमार ने भी इसे कुशलतापूर्वक साधा है । प्राचीन संस्कृत साहित्य का उनका अध्ययन गहरा है । कविता में वे मिथकों और आख्यानों को समकालीन संदर्भ देकर प्रस्तुत करते हैं । यह न केवल उनके अध्ययन, बल्कि कवि कर्म के कौशल को प्रस्तुत करता है बल्कि इससे उनकी रचनाओं में एक अलग ही कौंध और द्युति उत्पन्न होती है।

सत्ता प्राप्ति के लिए किसी भी हद से गुज़र जाने की ज़िद और स्त्री देह पर पुरुष आधिपत्य की अहंकारी कामना न केवल महाभारत बल्कि 'इन्द्रधनुष' की कथा भूमि भी है । द्रौपदी के बहाने यह आज की स्त्री के समक्ष घर से लेकर बाहर तक उपस्थित चुनौतियों, लोलुप पुरुष दृष्टि और स्त्री संघर्षों का आख्यान रचता है । लेकिन द्रौपदी एक भरी-पूरी स्त्री है । उसकी अपनी इच्छाएँ और कामनाएँ हैं । वह यौवन और प्रेम का मोहक सहयोग है । उपेंद्र जी भी प्रेम के रास्ते पर चलने वाले कवि हैं । इसलिए प्रेम और भोग के बीच की महीन रेखा पर चलते हुए कविता में संतुलन बनाए रखने का कौशल उनके पास है । तब जब द्रौपदी कामनाओं से भरी प्रेमी का इंतज़ार कर रही हो और तब भी जब अर्जुन अपने कल्पना लोक में द्रौपदी से अभिसार कर रहे हों । इस कृति में एक क़िस्म की चित्रात्मकता है । मानो आप कविता पढ़ते-पढ़ते किसी ऐसी गैलरी में पहुँच गये हों जहाँ उस दौर के मूर्तिशिल्प और पेंटिंग्स प्रदर्शित हों अथवा फ़िल्म दिखाई जा रही हो । बहुधा इस संग्रह के चित्र खजुराहो की मूर्तियों जैसे मोहक प्रतीत होते हैं । मोहक और मार्मिक । मांसल और यथार्थ । इसके पीछे कवि की मंशा स्त्रियों को उनका यौनिकस्पेस देने की भी रही होगी । लेकिन संकीर्ण मानसिकता वाले लोग यहीं अश्लीलता का आरोप भी लगा सकते हैं । जहाँ तक मुझे स्मरण है, प्रकाशन के एक वर्ष के भीतर ही पुस्तक पर ऐसा आरोप लगा भी । जिसमें अपनी काव्य परंपरा व स्त्री चेतना को समझने-स्वीकारने का विवेक न हो वही ऐसा आरोप लगा सकता है । अन्यथा यह प्रबंध काव्य बड़े ही कौशल से अपने पाठकों की विचार सरणी में समकालीन स्त्री विमर्श के प्रसंगों को ले आता है । स्त्री अस्मिता के संदर्भ में यह न्याय, समता और स्वतंत्रता जैसी बुनियादी शर्तों को अद्भुत ओजस्विता के साथ समंजित करता है । प्रचलित रास्तों को छोड़कर भूली-बिसरी पगडंडियों पर चलने का कवि का निर्णय निश्चय ही ख़ासा जोखिम भरा और कंटकाकीर्ण है । आज के समय में जब प्रबंध काव्य लिखना अतीत की बात हो चुकी है, उपेंद्र जी का प्रबंध काव्य रचने के मार्ग पर चलना उसी कंटकाकीर्ण पगडंडी पर चलने जैसा है ।

कवि अपने दूसरे प्रबंध काव्य 'वायु पुरुष' में वायु पुराण का अवलंब लेकर पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण निवारण का पाठ तैयार करता है । शुरुआत में ही वह कहता है- 'मैं वायु हूँ/ कहाँ हुआ जन्म मेरा/ किन पालनों में झूला/ कौन-सा कल्प था वह/ मैं जानता हूँ और नहीं भी/ एक अबूझ पहेली है या स्वप्न// हवा का स्पर्श अभी भी/ अनेक अर्थ रखता है/ उनचास पवन बाहर/ पाँच प्राण भीतर-/ अपान, उदान, समान, व्यान और वायु/ मैं वायु हूँ/ अंतरिक्ष में आलोकित...' (पहला सर्ग, पृ17) । धरती पर जीवन को संभव करने वाले अनिवार्य तत्वों में वायु शामिल है । महर्षि भृगु के हवाले से इस पुस्तक में बताया गया है कि प्राणियों का शरीर पंच महाभूतों का संघात है । इन पंच महाभूतों में जो चेष्टा या गति है वह वायु का भाग है । वायु के अनेक पर्याय हैं । पौराणिक ग्रंथों में उसे अनेक नामों से जाना गया है । वायु पुराण सहित अलग-अलग ग्रंथों और आख्यानों के हवाले से उपेंद्र जी वायु की एक पुरुष के रूप में कल्पना करते हैं और नायक बना उसका विस्तार रचते हैं ।

कवि प्रथमतः और अंततः एक प्रेमी होता है । प्रेम ही उसका पहला और आख़िरी शरण्य है । प्रेम ही कवि को कविता लिखने के लिए विवश करता है । उपेंद्र कुमार का कवि भी मूलतः एक प्रेमी है ।स्पर्श किए जा सकने वाले मूर्त प्रेम से शुरू होकर वह विस्तार पाता जाता है । प्रेम एकांत का मौन नहीं होता । जीवन के कलरव से गुंजायमान होता है । वहाँ जीवन के प्रति आसक्ति और रागात्मक लगाव होता है, जिजीविषा का कोलाहल होता है । तब वह जीवन और सृजन को संभव करने वाला अनिवार्य तत्व बन जाता है- 'होती है वाणी प्रकट ध्वनि से/ प्रकट होते ही उसके/ चले आते हैं वायुदेव/ चूमते हैं/ वाणी के होठों को, गालों को/ पलकों को कभी अलकों को/ करते आच्छादित/ अंग-प्रत्यंग वाणी के/ चुंबनों से अपने/ चुंबनों के इन्हीं घात-प्रतिघातों से/ जन्म लेते अक्षर/…/ शब्दों से बनती है भाषा/…/ भाषा से कवि रचता कविता/ कविता गाती है उसी वायु की प्रशंसा के गीत/ जिसके घात-प्रतिघातों ने रची भाषा…' (आठवाँ सर्ग, पृ88-89) । वायु पुरुष में यह प्रेम अपनी उपस्थिति और सृजन से जीवन को अर्थ प्रदान करने वाली शाश्वत परिणतियों की निष्पत्ति करता है ।

उपेन्द्र कुमार इस प्रक्रिया में देसी-विदेशी अनेक मिथकों तक जाते हैं, उनका पाठ-पुनर्पाठ प्रस्तुत करते हैं । पौराणिक आख्यानों और पात्रों पर अत्यधिक निर्भरता को पहली नज़र में कवि की कमजोरी अथवा विचलन मान लिया जा सकता है । लेकिन यह बहुत ही फ़ौरी और सतही निष्कर्ष होगा । वस्तुतः उपेंद्र जी इस प्रबंध काव्य के माध्यम से पर्यावरण क्षरण और प्रदूषण की निरंतर दुष्कर होती समस्या पर फ़ोकस करते हैं और पाठकों के सम्मुख उसे संवेदनशील लहजे में प्रस्तुत करते हैं - 'प्रकृति की लय न छेड़ो/ सृष्टि का आशय समझो' अथवा 'होना था जिन आँखों में प्रेम/ स्वार्थ में वे ही बनेंगी अंधी/ छा जाएगा अविवेक सभ्यता की समझ पर/ उठा लेंगे बंदूक़ें विध्वंसक उन्हीं हाथों में/ जिनमें होने चाहिए थे हल'। (दसवाँ सर्ग, पृ112, 114)

कवि को ज्ञात है कि हम भयंकर हिंस्र समय में जी रहे हैं । यह हिंसा केवल मनुष्य के प्रति नहीं है बल्कि प्रकृति के छोटे-बड़े अंग-प्रत्यंग के विरुद्ध है । यह हिंसा हमारी संस्कृति, पहनावा, जीवनशैली, भाषा-बोली, खानपान के ख़िलाफ़ है । यह हिंसा प्रकृति का स्वाभाविक अंग नहीं है बल्कि पूरी तरह प्रायोजित है । यह किसी ज़रूरत का हासिल नहीं बल्कि मनुष्य की लालच का परिणाम है । यह हिंसा केवल आतंकवादियों की वजह से नहीं, यह सत्ता और कॉरपोरेट्स, बड़े व्यापारियों की दुरभि-संधि का हासिल है जो संस्कृतियों और जीवनशैली के साथ-साथ हवा, पानी सबको दूषित कर देना चाहते हैं । जो मुनाफ़े के लिए वनों और उन पर आधारित जनजीवन, संसाधन को पूरी तरह से नष्ट कर देना चाहते हैं । कवि की दृष्टि वहाँ है । वह उनमें से कुछ चीज़ें बचा लेना चाहता है। मसलन हवा । हवा बची तो सब कुछ बचा रहेगा इसलिए कवि आगाह करता है - 'परंतु प्रदूषण से रुष्ट प्रकृति/ करती है जब तांडव-नर्तन/ तो कुछ भी न शेष रह जाता है/ जाता है पुनः समा वृक्ष बीज में/ हो जाता है अवतरित महाप्रलय' और इसके साथ 'वीरानों में गूँजेगी आवाज़/ जाग मनुष्य जाग, अपने भविष्य को पहचान/ सुन आहट प्रलय की' (वही, पृ115) । वायु पुरुष नाम के इस प्रबंध काव्य का यही बृहतर अभीष्ट है । उसे प्रकृति से तादात्म्य स्थापित करना है । यह हमारे समय की ज़रूरत है । यह भविष्य की ज़रूरत है । यह कवि की मूल प्रकृति का संकेतक है । यही इसकी रचना का अभिप्रेत है ।

उपेंद्र कुमार को प्रकृति से रागात्मक लगाव है । प्रकृति के आँगन में उनका प्रेम हिलोरें मारता है । विधागत अथवा आकार-प्रकारगत भिन्नताओं से इतर उनकी कविताओं में प्रकृति अपने सर्वोत्तम स्वरूप में उपस्थित होती है । उनमें नदियों का कल-कल, पर्वतों का गौरव, पत्तों का नर्तन , फूलों की ख़ुशबू और पक्षियों का संगीत सुना जा सकता है । प्रकृति उनकी कविताओं का एक महत्वपूर्ण अवलंब है जिसके माध्यम से वे वर्तमान के कठोर यथार्थ का मुक़ाबला करने का सपना संजोते हैं । 'वायु पुरुष' की तराना शीर्षक भूमिका में कवि का कथन है - 'प्रकृति और पवन के लिए प्रदूषण हिंसा है, अभिशाप है, जैसे संसार के लिए आतंकवाद । ऐसा अभिशाप या आतंकवाद एक मनुष्य या देश का नहीं होता । वह तो एक सभ्यता विनाशक के लिए है । कितना अपूर्व ! हिंसा भी भला कोई अभिलाषा है ? नहीं, नहीं, हम उस देश के रहने वाले हैं, उस संस्कृति को जीने वाले जिसने अहिंसा की मशाल जला रखी है । हिंसा को सदा नकारा है । हमने इंसानियत को सूर्य से भी ऊपर रखा है । यह हमारी परंपरा है । पुरखों की धरोहर है । इस भूमि की आकांक्षा है । जो कभी मर नहीं सकती । एक मशाल जो कभी बुझ नहीं सकती । प्रत्येक वृक्ष हमारी पताका है । उँगलियाँ उसी को छूने बढ़ती हैं ।' कविता सरीखी यह भाषा किसी कवि की ही हो सकती है । इन पंक्तियों में कवि का सपना समाया है जो आगे के पन्नों में उज्ज्वल विस्तार पाता है । यह उसकी अभिलाषा है । हम जानते हैं कि उद्धृत प्रत्येक वाक्य का विलोम भयावह रूप में हमारे सम्मुख उपस्थित है । हम जानते हैं कि सच कितना विकृत है । लेकिन एक सर्जक, कवि, कलाकार कभी सपने देखना नहीं छोड़ सकता । ये कृतियाँ उसी अनाहत उम्मीद का हासिल हैं ।


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हिंदी समय में राकेशरेणु की रचनाएँ